25/8/2008
बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के पाखण्ड की असली सच्चाई !
मेरे एक सहयोगी ने दैनिक जनसत्ता के दिनांक 17 अप्रेल, 1986 अंक के पेज 5 पर छपी खबर "बंधुआ मुक्ति यानी रोटी के लिये दर-दर भटकन" शीर्षक से वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर की एक डिस्पेच मुझे बताई। 22 साल से ज्यादा समय पूर्व लिखे गये इस लेख के पहिले दो पैरा इस प्रकार हैं--
"नई दिल्ली- 16 अप्रेल। एक मनुष्य की-खास तौर पर एक बंधक मजदूर की जान की कीमत क्या होती है ? मध्यप्रदेश सरकार से अगर आप पूछें तो वहां बंधुआ मजदूरों की जान का भाव यह है- एक फाइल और बाद में खिसिया कर जारी की गई खाकी कागज पर छपी एक प्रेस विज्ञप्ति और वह भी झूंट का पुलिन्दा।"
जानदार लेखनी है, इस ताकतवर पत्रकार की ! लेकिन यह है सिक्के का एक पहलू ! जो सरकार की चूलें हिलाता है। अब जरा सिक्के का दूसरा पहलू बंधुआ मुक्ति का ढोंग करने वालों का, भी जान लीजिये - बडे गौर से जो हमें शर्मसार करता है।

साथी आलोक तोमर के लेख के पैरा 4 से 6 में लिखा है कि कैलाश सत्यार्थी जोकि बंधुआ मुक्ति मोर्चा के तत्कालीन राष्ट्रीय सचिव थे, ने कोटा के कलक्टर से मिल कर रेल्वे के ठेकेदार विनोद सिंह के यहां से चार बंधुआ मजदूरों पन्नीबाई, चन्दन सिंह, जगदीश और कैलाश बाई को मुक्त करवाया बताया और ये लोग 3 नवम्बर को मुक्त हुये। तीन नवम्बर याने कि 3 नवम्बर, 1985 यह उन तारीखों में से एक तारीख है जब हीराचंद जैन तत्कालीन संयोजक राजस्थान बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने अपनी जान जोखिम में डाल कर कठिन परिस्थितियों में कोटा के अभेडा तालाब क्षेत्र एवं ठेकेदार रणजीत सिंह बेदी और उसके बेटे विनोद सिंह के घर से उपरोक्त चारों बंधुआ मजदूरों सहित 111 परिवारों के 412 बंधक श्रमिकों को मुक्त करवाया था। सौ से अधिक मामले दर्ज हुये थे लेबर कोर्ट में। कुल 122 मामले दर्ज हुये विभिन्न धाराओं में। हिम्मत नहीं हुई थी कैलाश सत्यार्थी की कोटा का रूख करने की।

अपने आपको मुक्ति का मसीहा आरोपित करने वाले बेशर्म असत्य के पुलिंदे कैलाश सत्यार्थी का बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के बेशर्मीपूर्ण-पाखण्डपूर्ण सत्य का यह असली झूंट है। कैलाश सत्यार्थी इन बंधुआ मजदूरों की मुक्ति से लेकर उनके घरों को रवानगी और उसके बाद लम्बे अर्से तक कोटा और उसके आस-पास के 200 किलोमीटर इलाके में गये ही नहीं। तत्कालीन सुमेधा सत्यार्थी की ट्रस्टीशिप वाले मुक्ति प्रतिष्ठान व अन्य माध्यमों से ब्रेड फार दा वर्ड या क्रिश्चियन एड सरीखी विदेशी संस्थाओं व स्थानीय दान दाताओं से भीख में चन्दा लेने के लिये इतना बडा बंधुआ मुक्ति का झूंटा नाटक रचा ! इससे बडी शर्म की क्या बात हो सकती है। बचपन बचाओ आन्दोलन के चेयरपरसन कैलाश सत्यार्थी के लिये। उठा दी सत्य की ही अर्थी !
अब संक्षिप्त में इस मुक्ति अभियान की असली कहानी सुनिये, जो कि कोटा के तत्कालीन कलक्टर एवं जिला मजिस्ट्रेट धर्मवीर ने अपने आवास पर 01 नवम्बर, 1985 को अपने ड्राइंगहाल में खचाखच भरी प्रेस कान्फ्रेन्स में पत्रकारों को बताई, "आज की इस महती घटना की शुरूआत गत 22 अक्टूबर, 1985 को हुई थी जब श्री हीराचंद जैन एक बंधुआ मजदूर बन कर दाढी आदि बढा कर अभेडा महल के पीछे की उक्त बस्ती के मजदूरों में शामिल हो गये और 7 रूपये 60 पैसे की मजदूरी पर गिट्टियां तोडी। अपने इस कार्य के दौरान ही उन्होंने बंधुआ श्रमिकों में घुलमिल कर उनके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करली और प्रशासन से मिल कर मजदूरों की मुक्ति का अभियान चलाया।" जिला कलक्टर धर्मवीर ने आगे बताया कि कोटा में जिला प्रशासन की नाक के नीचे इतने बंधुआ मजदूरों को खोज निकालने के लिये श्री हीराचंद जैन बधाई के पात्र हैं।
प्रेस कान्फ्रेन्स में मैं भी मौजूद था और मैने ही जिला कलक्टर श्री धर्मवीर को बताया था कि रेल्वे कान्ट्रेक्टर रणजीत सिंह बेदी और उसके बेटे विनोद सिंह बेदी के घर पर भी पन्नीबाई, कैलासी के साथ कुल चार बंधुआ मजदूर और हैं, उन्हें भी मुक्त कराया जाये। जिला कलक्टर ने प्रेस कान्फ्रेन्स में ही इनकी मुक्ति के लिये जिला प्रशासन के अधिकारियों को सख्त आदेश दिये और कोटा से कुल 111 परिवारों के 412 बंधक श्रमिक मुक्त हुये। जिनमें मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात एवं उडीसा के साथ-साथ राजस्थान के कोटा, बूंदी, झालावाड, जालौर, सिरोही, बाडमेर, नागोर, पाली, जोधपुर, टौंक, भीलवाडा सहित 16 जिलों के बंधुआ मजदूरों को 3 नवम्बर, 1985 से 6 नवम्बर, 1985 तक मुक्ति प्रमाण पत्र देकर उन्हें उनके घरों को भिजवाया गया। मैने खुद ने अपने निर्देशन में यह सारा कार्य करवाया था। सारा तथ्यात्मक दस्तावेजी रेकार्ड हर स्तर पर आज भी उपलब्ध है।
राजस्थान में अक्टूबर, 1985 से दिसम्बर, 1987 तक जैसलमेर से 33, कोटा से 412, भीलवाडा से 4, सवाईमाधोपुर जिले से 5, पाली से 1, बूंदी से 36, चूरू से 11, चित्तौडगढ जिले से 2 बंधुआ मजदूरों को हीराचंद जैन तत्कालीन संयोजक बंधुआ मुक्ति मोर्चा राजस्थान के व्यक्तिगत प्रयासों से मुक्त करवाया गया। कोटा से ही 200 लोगों को हमारे दबाव के कारण जिला प्रशासन ने रातोंरात कोटा के ही अटरू रेल्वे स्टेशन के पास शिफ्ट कर बसा दिया। वहीं नागौर जिले के डीडवाना से बाडमेर जिले के 85 मजदूरों को बाडमेर शिफ्ट कर दिया था जिला प्रशासन ने हमारे दबाव के कारण ! इन सारे अभियानों में किसी भी स्तर पर कैलाश सत्यार्थी एवं सुमेधा सत्यार्थी का कोई रोल नहीं है। यह तथ्यात्मक सच्चाई है। 
भूल गये कैलाश सत्यार्थी जब बाडमेर जिला कलक्टर श्री पंकज का उसके दफ्तर में घेराव किया गया था, बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के लिये, जयपुर में एसएसओ सेक्रेटरी श्री राजेन्द्र जैन ने तकरार के बाद और हुआ भी पुनर्वास ! हिला दी थी प्रशासन और राज्य सरकार की चूलें। हुजूर आप तो भाग छूटे थे मिस्टर कैलाश सत्यार्थी !
अब दो हमारे सवाल का जवाब मिस्टर कैलाश सत्यार्थी ! सरकार से भीख में मांगी गई जमीन पर देशी विदेशी चंदे से बनाये गये मठ के अलावा राजस्थान में क्या किया है पिछले 20 सालों में बंधुआ मजदूरों और बाल बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के लिये ? कितने छुडाये और कितनों का पुर्नवास करवाया ?
हिसाब तो देना ही होगा। खबरची मीडिया में अपनी वाहवाही के कसीदे गढवाने से और अपने निजीहित साधन करने के लिये कर्मशील ईमानदार व्यक्तियों को बदनाम करने मात्र से बंधुआ मुक्ति अभियान नहीं चलते हैं मिस्टर कैलाश सत्यार्थी !
हमने दिनांक 17/8/2008 को इण्डियन पोस्ट इन्फो नेटवर्क पर "समाज का घिनौना नासूर- बंधुआ मजदूरों की नफरी कितनी है !" शीर्षक से लिखे लेख में लिखा था कि "क्या समाज का नासूर बनी यह समस्या, देशी-विदेशी सहायता, दान, चन्दा इकठठा कर मठ आश्रम स्थापित कर रोजी-रोटी कमाने का जरिया तो नहीं बन गई, कुछ लोगों के लिये !" जी हां ! यह सही है और देखा इसका असली नमूना आप खुद हैं मिस्टर कैलाश सत्यार्थी ! अभी तो वहुतसारी सच्चाईयां बाहर आने को बेताब है ! तब तक फोटोज का मुलायजा फरमाईये हुजूर ! ये असली है !
हीराचंद जैन
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